मध्यान्तर (Interval) का समय, यह समय हम सब के लिये एक प्यार तथा मस्ती का समय होता था जिसमें हम साधारण बातचीत करते थे। इसमें गुरुजी, सभी शिष्यों को उनके प्यार के उपनाम (Nick Names) से भी पुकारते थे। चुटकुले और हंसी-मज़ाक ऐसे होता था, मानो कि हम सभी उनके दोस्त हों। लेकिन हमेशा सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती थी कि मीटिंग के दौरान या अन्त में एक आध्यात्मिक संदेश जरुर होता था।
इस तरह का मौका हमें कभी-कभी ही मिलता था। ऐसे ही एक मौके पर जब मैं छ: -सात शिष्यों के साथ गुरुजी के कमरे में बैठा हुआ था तथा साधारण बातचीत चल रही थी कि अचानक गुरूजी ने मेरी तरफ देखा और बोले—
“….ओ राजे, तू बाथरूम में फर्श पर लाईने कैसी खींच रहा था आज?”
फिर वे हल्का सा गुस्सा दिखाते हुए बोले—
“कभी तो चैन से बैठा कर… |”
किसी शिष्य को समझ नहीं आया कि गुरुजी के कहने का क्या मतलब है…? मैंने थोड़ा शर्माते हुए कहा, “गुरुजी…, कछ नहीं…. बस वैसे ही……”. दरअसल, जब मैं वहाँ इंडियन स्टाईल के पोट पर बैठा था तो मेरा ध्यान वहाँ फर्श पर इक्कट्ठा हुए पानी की ओर चला गया। मैंने सोचा कि क्यों न इस पानी को पोट की ओर दिशा दे दूं…… तो मैं उस पानी के किनारे को छूते हुए, पोट के किनारे तक ले आया और पानी पोट में चला गया। बस मैंने बाथरूम में यही किया था गुरुजी…, यही आया था मेरे दिमाग में…..// वहाँ बैठे सभी लोगों के साथ, वे भी हंसने लगे।
इसमें भी एक संदेश छुपा था,
गुरुजी हमें, बन्द कमरे में भी देख रहे हैं जबकि वहाँ हमारे अलावा और कोई नहीं होता।
अतः आप सर्वत्र ‘विराजमान’ हैं।