मैं जनकपुरी में, सीताराम जी के घर बैठा था और किसी को अपनी पुरानी कार बेच रहा था। तभी वहाँ पर गुरुजी का फोन आया। वे कहने लगे— ”तू यहाँ क्या कर रहा है?” मैंने कहा—”गुरुजी मैं अपनी पुरानी कार बेच रहा हूँ।” गुरुजी ने आगे पूछा— ”कितने में?” मैंने उन्हें बताया कि जो खरीद रहा है, वह चालिस हज़ार दे रहा है और मैं पैतालिस हज़ार माँग रहा हूँ। इस पर वे बोले— “तुम उसे अपनी कार उन्तालिस हजार में बेच दो।”
जब मैंने उस खरीदार को बोला कि आप ऐसा करो उन्तालिस हज़ार ही दे दो। उसे ऐसा लगा कि मैं शायद नाराजगी में उससे कह रहा हूँ। मुझे शायद चालिस हज़ार से ज्यादा चाहिए। मैंने उसे बड़े आराम से बोला कि इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता। यह कार मैं उन्तालिस हज़ार से ज़्यादा में बेच ही नहीं सकता। ऐसा आदेश मुझे अभी-अभी फोन पर मिला है। वह आश्चर्य से मेरी तरफ देख रहा था और जानने का इच्छुक था कि यह कैसा आदेश है…? जो फोन पर मिला हैं।
मैंने कहा— __’ये हमारे गुरु जी का आदेश है, जो हमारे दिमाग व हमारे हर काम को अपने नियन्त्रण में रखते हैं।”
वह खरीदार मेरे इस प्रकार के व्यवहार से चौंक गया, लेकिन वह अपने बजट से भी कम कीमत पर मिली कार को पाकर बहुत खुः श था। गुरुजी के इस आदेश से शिष्य को दो फायदे हुए। पहला उसे खरीदार के दिल से ढ़ेरों दुआएं मिली और दूसरा यह कार्य करके वह अपने गुरुजी के और नज़दीक आ गया।
इसमें उसने क्या पाया? यह कोई विरला ही समझ सकता है।